Saturday, May 21, 2022
सुधा सिन्हा 23.02.2022 आपत्ति की विपत्ति
आपत्ति की विपत्ति
कौन नहीं जानता कि भारत, मूलत: तथा निर्विवाद रूप से,
हिन्दुओं की जन्मभूमि है ! हिन्दू विश्व के किसी भाग में रहता
हो, उसे भारत के प्रति कमोवेश माता की ओर एक शिशु के
खिंचाव जैसी ही अनुभूति होती है। हिन्दू केलिए भारतभूमि
'स्वर्गादपि गरियसी' है।भारत केलिए हिन्दू उसका आत्मज है।
युगों से भारत को शोभनीय, ऐश्वर्यशाली तथा पवित्र बनाने का
नैसर्गिक माध्यम हिन्दू ही है। हिन्दुत्व ने ही भारत को श्रेष्ठता
प्रदान की है और इसे सभ्यसुसंस्कृत, हीनतामुक्त समुदाय का
प्रतिष्ठित गेह बनाया है। हिन्दू होने का भाव और गुण कोई
जड़ अवधारणा नहीं है; यह है हिन्दुत्व के रूप में प्रस्फुटित
जीवन्त जीवनपद्धत्ति।
भारतीय संस्कृति भारत की मूल भाषा संस्कृत के पालने में ही
पली-बढ़ी है। इसकी सभी सशक्त, सारगर्भित, सरस बोलियां
संस्कृतज ही हैं; स्थानीय स्वराघात के कारण उनमें जो
भिन्नता आ गयी है, उससे न तो उनका मूल स्वभाव बदला है,
और न माधुर्य में कमी आयी है। हिन्दुओं की श्रेयस्कर
जीवनधारा सर्वसमावेशी है। वैचारिक विभेद भी इसे आहत नहीं
करता, बल्कि सीखने तथा सिखाने को प्रेरित करता रहता है।
इसकी श्रेष्ठ गुरुता तथा उत्तम शिष्यत्व जगतप्रसिद्ध है।
अतिथि को देवतुल्य और शरणागत को उत्तरदायित्त्व मानते हुए
'सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय' का मनोभाव रखने वाले भारत
को मूढ़ मुसलमान आक्रमणकारियों और विद्वेषी ईसाई
तिजारतियों के कारण अकूत हानि उठानी पड़ी। मुसलमानों और
ईसाइयों का कदाचार मंदिर तथा मूर्ति भग्न करने तक ही
सीमित नहीं रहा; भूखी लोमड़ी की तरह दोनों ने भारतीय
संस्कृति को चबा डालना चाहा। लेकिन जब हिन्दुत्व की भैरव
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भीमता भड़क उठी, तब उन दोनों अपकारकों को अपनी कुटिल
मंशा सहित दाँतों से भी हाथ धोने पड़े।
मुसलमानों और ईसाइयों ने हिन्दुत्व को टुटपुँजिआ रेलिजन
समझने की भूल की थी। वे 'धर्म' का मर्म ही नहीं जानते थे।
दरअसल, उनकी भाषा में न तो इस सारगर्भित शब्द का
अनुवाद कर पाने की क्षमता है और न उनकी मेधा को
अध्यात्म का स्पर्श ही मिला है। वे सौम्यता को दुर्बलता
समझते रहे। मानव में निहित दिव्यता को समझ पायें, ऐसी
बुद्धिमत्ता उनमें थी ही नहीं। उन्होंने अपने त्रुटिपूर्ण मापकडंडे से
अमापनीय हिन्दुत्व का परिमाण मापने की कुटिल कुचेष्टा की।
हिन्दुत्व को तो वे कमतर नहीं दिखा सके, पर स्वयं बौने हो
गये। अपना कद बढ़ाने में असमर्थ बौने, अपनी संख्या बढ़ाने
लगे। उन्होंने छल-बल-कल से हिन्दुओं को धर्मच्युत कराने का
काला धंधा शुरु किया। मौलवी-पादरी का यही मुख्य पेशा बन
गया। उनकी इन बेहूदी हरकतों के कारण, एक हजार साल तक
देश दागदार होता रहा।
जब जनगण के अथक प्रयास से भारत स्वतंत्र हुआ, तब
मुसलमान-प्रेमी मोहनदास करमचन्द गाँधी ने गयासुद्दीन के
पोते जबाहरमियाँ को सर्वेसर्वा बना कर देश का लगभग सात
दसक और बरबाद करा दिया। मुसलमान हितैषी मोहनदास
करमचन्द गाँधी को जब यह लगने लगा कि भारत का जनगण
मुसलमान की भारतविद्वेषी चाल को समझ चुका है, तब
उन्होंने जबाहरमियाँ के खानदान को 'गाँधी' उपनाम सौंप कर
नकली हिन्दू बनाने की चाल चली। वे ऐसा कुटिल विबंध कर
देना चाहते थे जिससे भारत सदा केलिए मुसलमानी शासन के
अधीन रहे।
परन्तु भारतमाता की चाह कुछ और ही थी। मुसलमान की
अविश्वसनीयता हर क्षेत्र, संस्थान अथवा पद पर सिद्ध होती
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चली गयी। इसलिए देश को मूर्ख बना कर चूना लगाने की इस
गाँधीवादी चाल को जनगण ने सिरे से खारिज कर दिया। भारत
के अंतरिक्ष से 'गाँधी' को इसलिए विलोपित होना पड़ा क्योंकि
यह जानते हुए भी कि मुसलमान भारत का विनाश चाहता है,
वे भारत पर मुसलमानी वर्चस्व की वकालत करते रहे। वे इतने
मूर्ख तो नहीं ही रहे होंगे कि मुसलमानी कुटिलता को नहीं
बूझते हों। तब क्या वे भारत को मुसलमानी देश बनाने के
पक्षधर थे ? उन्होने हिन्दुओं को सम्बोधित कर कहा था कि
अगर मुसलमान तुम्हारी हत्या करना चाहता है तो खुशी-खुशी
जान दे दो !!! यह कैसी बात हुई ? भारत केलिए गाँधीवाद
दमघोटू मुसलमानी दुर्गंध फैलाने वाला प्रदूषण बन कर रह
गया। ऐसा कोई भी अपतत्त्व जो भारत के अस्तित्त्व तथा
इसकी प्रतिष्ठा पर आघात करने वाला हो, कभी भी सहन नहीं
किया जा सकता।
उसी अकुलाहट भरे काल खण्ड में भारतीय जनगण राष्ट्रवाद
का सुभग, सबल, सटीक पट बुनता रहा। राष्ट्र के प्रति निष्ठा
भारत केलिए कोई नयी बात नहीं थी। आसेतुहिमालय भिन्न-
मिन्न रूप-रंग तथा वेशभूषा में संचरित विपुल जनसमुदाय का
राष्ट्रप्रेम सदा से अक्षुण्ण रहा है। परन्तु उस विपरीत परिस्थिति
में राष्ट्रवाद का ऐसा दीर्घ ध्वज भारतीय अंतरिक्ष पर लहरा उठा
कि सभी देशद्रोहियों के झंडे-बन्डे की चूड़ें हिल गयीं।भारत
हिन्दू राष्ट्र है, इस चिरकालिक सत्य पर जिन मूढ़ों को आपत्ति
है उनके हाथ में उखड़े फटे झंडे का टूटा डंडा है और मुँह पर
कालिख पुती है। तथास्तु।
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