Sunday, May 8, 2022

ॐ सुधा सिन्हा -- पिछडापन व 'जातिप्रथा'

Oxford Dictionary में लिखा है-- जात any of the Hindu hereditary classes whose members have no social contact with other classes. बोलचाल में उस जनसमूह को पिछडा कहा जाता रहा है जिनके बीच औपचारिक ‍शिक्षा की कमी है और जिनके जिम्मे तथाकथित मंद व्यवसाय है। पिछडापन सामाजिक अपमान माना जाता था।' 'लेकिन अब तो ऐेसा लगता है जैसे आरक्षण कोई तोहफा हो या सूद सहित मिलने वाला हरजाना।' 'लेकिन मुफ्त का विशेषाधिकार पाने केलिए अपनी हीनता को महिमामंडित करने की राजनैतिक नौटंकी देखते-देखते देश ऊब चुका है। अब तो ऐसा सुनने का मन होता है कि लोग आरक्षण लेने से मना कर दें।' 'बिल्कुल। और, यही होगा। अंतत: आत्मसम्मान जगेगा ही।' 'और, स्वयं को उत्तिष्ठ करने का महत्व समझ में आयेगा, तब खैरात लेना अपमानजनक हो जायेगा।' 'सही कहा। यह तो विकास की अनिवार्यता भी है।' 'लेकिन निचले स्तर की राजनैतिक हरकतों ने सारी सूक्ष्म-स्थूल अनिवार्यताओ और सम्भावनाओं को दर-किनार कर दिया है। अगडा-पिछडा का सामाजिक विभेद चुनाव जीतने का राजनैतिक हथकंडा बन कर रह गया। समाज के पिछडे समूह की काल्पनिक कमियों केलिए ऊँची दीर्घा में बैठे अगडों को कोसा जाने लगा। दलितों के धनकुबेर दलालों ने इस संदर्भ में एक नया राजनैतिक शब्द--'मनुवादी'-- गाली की तरह उछाला है।' 'पिछडेपन का निर्धारण किया किसने?' 'संविधान के मूल पाठ में Schedule Cast और Schedule Tribe' अंकित है और इसे ही सूचिबद्ध किया गया है। आरक्षण इन्हीं केलिए है। देश का वह बहुसंख्यक जनगण जो इस आरक्षण के कारण राजनैतिक वंचना का शिकार हो रहा था, भारी मन से ही सही, इसे सहने को तैयार हो गया था। यदि राजनैतिक इच्छा-शक्ति और प्रशासनिक कुशलता सक्रिय रही होती तो दस या पन्द्रह वर्षो में किसी लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता था। परन्तु अब तो तथाकथित 'पिछडा' शैतान की आँत बन कर सब कुछ हडप लेने को मुँह फाडता ही जा रहा है।' 'ठीक कहा। आजादी के बाद सत्ता पर काबिज राजनेताओं में इच्छा-शक्ति का अभाव तो था ही, उन्होंने आरक्षण को छद्म प्रेम-प्रदर्शन का दिखावटी झुनझुना बना लिया। जिस Schedule Cast और Schedule Tribe' जनसमूह को देश के सामान्य जनगण के साथ जोडना था, उसे और भी अलग कर दिया। सामान्य लोगों में उनके प्रति उत्तरदायित्व बोध जगाने के बदले, उनके बीच शोषित-शोषक का वैमणस्य पैदा करा दिया। नतीजा यह हुआ कि इस मामले में जनसहयोग शून्य बना रहा।' 'हाँ, जब देश में 'Other Backward Classes' का हंगामा शुरू हुआ, तब तो स्थिति और द्वन्द्वात्मक हो गयी। राजनैतिक इरादा इतना अपघाती था कि सारे देश में इस अनीति के विरुद्ध मुकदमे दायर हो गये। 'योग्य' को अपनी योग्यता व्यर्थ लगने लगी थी क्योंकि अयोग्यता का प्रमाणपत्र विशेष सुविधायें दिलाने लगा। तीव्र बुद्धि की चमक मंद बुद्धि के सामने नगण्य मानी गयी। जनगण के बीच फैले असंतोष से भी अधिक देश की जो हानि हो रही थी उसका आकलन नहीं किया जा सकता।' 'अनेक प्रकार की वर्ग भिन्नता होने के बावजूद भारत में कोई जाति संघर्ष नहीं था। जातिगत व्यावसायिक व्यवस्था के अंतर्गत लोग समरसता से जीवन यापन करते थे।' 'हाँ, यह अविश्वसनीय लगता है। परन्तु है सत्य। इसके पीछे एक सूक्ष्म तत्त्व काम करता था। यह जो एक कथन है कि it happens only in India, वह इस पर भी लागू होता है। जातिगत विभेद होने पर भी सामाजिक समरसता एक रहस्य सा लगता है। इस 'सम' को सींचता रहा है आध्यात्मिकता का अमृत 'रस'। विकृति के बावजूद वर्ण व्यवस्था की अवधारणा जातिप्रथा के मूल में बनी रही। बाहरी पहचान पर भले ही जाति हावी हो गयी हो, परन्तु व्यक्ति की अमरता का सूक्ष्म परिचय पत्र निरस्त नंहीं हुआ, बना रहा।' 'भारत के सामाजिक जीवन के बहुरंगी पट में 'जाति' ने अपना ताना-बाना डाल रखा है यह जानते हुए भी संविधान निर्माता ने जातिमुक्त समाज की कल्पना की, जाति व्यवस्था समाप्त करने का मन बनाया?' 'हाँ, वे जानते थे कि यहाँ जाति-संघर्ष नहीं होने का अर्थ यह नहीं है कि जातिप्रथा में कोई दोष नहीं था या दलितों-वंचितों के प्रति अन्याय नहीं होता था। हमारे महान देश का बहुत बडा जन समूह अपमान और अभाव के दंश झेलता आ रहा था। और, यह भी सत्य है कि जाति के नाम पर होने वाला भेदभाव देश को कुरूप तथा कमजोर बना चुका था। इसीलिए स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के दलितों-वंचितों को सामान्य दीर्घा तक पहुँचाने हेतु आरक्षण को एक कारगर उपाय मानकर लागू किया गया। इसके पीछे मुख्य उद्देश्य था असमानता का समापन। 'दलित-वंचित जन आज भी भारतीय संस्कृति की मूल अवधारणा, आत्मा की अमरता में विश्वास करता है! उस स्तर पर तो समानता है ही।' 'यह आध्यात्मिक अवदान प्रत्येक भारतीय को जन्मजात थाती के रूप में उपलब्ध है; यह कोई सांसारिक विरासत नहीं है। इस महत्त्वपूर्ण एक्य के बावजूद व्यावहारिक स्तर पर वस्तुस्थिति विपरीत है। आध्यात्मिकता नीँव में बनी रही, परन्तु सतह पर खडी दीवारों में दरारें पड गयीं। मिलावट के कारण दोष उत्पन्न हुआ। इसमें कहीं कोई संदेह नहीं कि भारत का सामान्य जनगण भी जीवन की सूक्ष्म निरन्तरता की बात जानता है, वह मानता है कि हम में-तुम में-खर में-खम्भ में भगवान की उपस्थिति है, यह भी जानता है कि सब एक ही तत्त्व से बने है। तब प्रश्न यह उठता है कि कोई अछूत कैसे बना दिया गया? इस आपत्तिजनक बात पर तो सवाल उठना ही चाहिए। ऊँच-नीच का भेद तो मिटना ही चाहिए।' 'हाँ, इसीलिए विचारकों ने जातिमुक्त समाज की आवश्यकता अनुभव की। इसे सम्भव बनाने केलिए उन्होंने आरक्षण का सहारा लिया। उनका अनुमान था कि इससे दलित-वंचित सामान्य दीर्घा में आ जायेंगे। परन्तु उनका आकलन धरा रह गया। जो जातिप्रथा स्वयं धुँधलाते-धुँधलाते non functional हो जाती़, वह नये लक्षणों के साथ drug resist पुराने रोग की तरह उभर कर समाज को ज्वरग्रस्त करने लगी; आरक्षण समाजिक रोग की बदपरहेजी बन गया।' 'आरक्षण को 'हाइजैक' कर लिया राजलोलुप सत्तामाफीआ ने। असली उद्देश्य से इसे पूरी तरह वियुक्त कर बिकाऊ चीज बना दिया।' 'वर्तमान समय में आरक्षण के जो स्वघोषित ठीकेदार दिखाई दे रहे है उनमें न तो लोकसंग्रह का भाव है और न किसी तरह की सकारात्मक क्षमता है। आरक्षण को मुद्दा बना कर वे राजसत्ता पाने की अपनी अपआकांक्षा पूरी करना चाहते हैं। इसके लिए वे किसी भी सुखी-सम्पन्न जनसमूह के मन में मिथ्या असंतोष भर कर 'आरक्षण' दिलवाने का झूठा वादा करते हैं। आपने देखा होगा कि कुछ निकम्मे लोग ईंट या पत्थर पर सिन्दूर पोत कर जनसंकुल स्थान में बैठ जाते हैं; कीर्त्तन-भजन, पूजा-आरती करने लगते है। उनकी इस हरकत से अकसर आवागमन बाधित होता है। दरअसल, उनका इरादा रहता है जमीन हथियाना। उसी तरह आरक्षण के बिचौलिये राजनीति की जमीन पर नाजायज कब्जा करने केलिए यह कपट जाल बिछाते हैं। राष्ट्रीय विकास को बाधित करने वाले इस आरक्षण माफीआपशु को देश का जनगण घास नहीं डालेगा।' (जारी..) आरक्षण का प्रावधान दलित-वंचित-पिछडा की स्थिति बदलने केलिए था, परन्तु इसे धौंस भरा विशेषाधिकार बना दिया गया। यह उद्दंडों की दादागिरी का एक यंत्र बन गया। इस हालत से निकालने की बात तो दूर, इसमें शामिल होने केलिए बहुरूपिये लाइन में खडे हो गये। आरक्षण राजनीति के under world का काला धंधा बन गया। दलित-वंचित-पिछडा बनने केलिए लोगों को उकसाने वाले दलाल राजनेता महलों में राजसी सुख भोगने लगे। दलित-वंचित-पिछडा जन समूह को राजनैतिक कारखाने का कच्चा माल बना दिया गया।' 'आरक्षण के प्रसंग में 'क्रीमी लेयर' की बात आती है। यह एक अलग किस्म की कालाबाजारी है। जिसे दलित-वंचित-पिछडा का प्रमाणपत्र मिल गया, वह करोडपति हो या उच्चपद आसीन, अपने तथा अपनी अयोग्य संतानों केलिए आरक्षण के सारे लाभ समेट लेता है। वह भ्रष्ट, जुगाडू व्यक्ति या परिवार अपनी जाति के भी जरूरतमंदों को ठगता है। चालाक बिल्ली की तरह सारी मलाई चाट जाने वाले उस तथाकथित दलित-वंचित-पिछडे शठ को 'क्रीमी लेयर' का कीडा माना जाता है।' 'क्या कभी इसी प्रकार की विकृतियां वर्णव्यवस्था के अंतर्गत भी हुई होंगी?' 'सम्भव है वह भी शुद्धिकरण की एक प्रक्रिया रही हो! मानव क्रमविकास को ध्यान में रख कर संरचित वर्ण व्यवस्था की विकृति .... ' 'कहाँ आध्यात्मिक दृष्टिकोण से संघटित वर्ण व्यवस्था और कहाँ यह सामाजिक रोगजन्य आरक्षण ! दोनों के बीच कोई साम्य नहीं है।' 'सारे रोग-दोष निश्चेतना से ही निकल कर आते हैं। जो प्रकटत: दोष बन कर आता है, अकसर उसमें भी निहित होता है शत-प्रतिशत शुद्ध बनने का उद्देश्य। नकारात्मक तत्त्व भी सकारात्मकता को सम्भव बनाने का कारक बन जाता है।' 'यह भारतीय दृष्टिकोण है।' 'इसे भारतीय दृष्टिकोण कह कर सीमाबद्ध न करें। यह शाश्वत-सार्वभौम तथ्य है। जहाँ कहीं सत्य स्थापित होता है, मिथ्या झाँकने लगती है। हमें भले ही बाधा की असुविधा होती हो, परन्तु यह है अपने को बदलने केलिए उसकी आकुल संचेष्टा।' 'हाँ, निश्चेतना सार्वभौम है। परन्तु आज की जातिप्रथा 'वर्ण' की जिस अवधारणा पर आधारित है, वह तो भारतभूमि की ही देन है; ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में वर्ण का उल्लेख है। इसके मूल में 'वृ' है जिसका अर्थ है चुनना या पसंद करना। यह अंग्रेजी के choice का पर्यायवाची माना जा सकता है। यानी व्यक्ति अपने लिए वर्ण चुन सकता था।' 'परन्तु ऐसा नहीं लगता कि वर्ण चुनना पूरी तरह व्यक्ति के अपने अधिकार में था। स्वेच्छा से किसी वर्ण में प्रवेश करना सहज नहीं था। इसके लिए उसकी जन्मजात क्षमता, प्रयत्नशील उद्यम, अर्जित योग्यता और सबसे अधिक अभीप्सा की भूमिका रहा करती थी। ऐसा ही एक प्रसंग 'हरिवंश पुराण' में है; नभगरिष्ठ नामक एक वैश्य का उल्लेख है कि उसके दो पुत्र ब्राह्मणत्व प्राप्त कर गये। इससे क्या संकेत मिलता है?' 'इसे आरक्षण के 'प्रयास' पक्ष से जोडा जा सकता है। आरक्षण को दलित-वंचित केलिए ऐसा अवसर बनाया गया था जिसके सहारे वह अपनी योग्यता सिद्ध कर सके, अपनी मंद क्षमता को तीव्र गति दे कर सामान्य दीर्घा में स्थान पा सके।' 'इसी संदर्भ की प्राचीन कथा है: किसी के चार पुत्र थे। सबका लालन-पालन एक ही रीति तथा संसाधन से, समान परिवेश में हुआ। युवा पुत्रों को प्रवृत्ति और क्षमता के अनुसार दायित्व सौंपे गये। एक अध्यापक, दूसरा सुरक्षा अधिकारी, तीसरा वित्तीय प्रभारी बना और चौथे को सेवा व्यवस्था का प्रभार दिया गया। याने सहोदर भाई अलग-अलग वर्ण में प्रविष्ट हुए।' 'इसमें ऊँच-नीच की तो कोई बात नहीं उठी !' विभेद को लेकर व्यक्तिगत और सामाजिक दृष्टिकोण भिन्न होता है। प्रतिष्ठा का मापदंड सामाजिक संदर्भ में तैयार होता है। आदि काल से ही अध्यापन अधिक सम्मानीय कार्य माना जाता रहा है। 'शिक्षा' समाज का नैतिक उत्तरदायित्व बन गया था। व्यक्ति चाहे किसी भी वर्ण या वर्ग का हो, उसे उसका शिक्षक ही सँवारता-तराशता था। भारत में शिक्षक को माता-पिता के समकक्ष सम्मान देने की परम्परा है। इसमें द्विपक्षीय उदात्तता है; शिक्षक भी अपने शिष्य को अपने से बडा पाकर ईर्ष्याग्रस्त नहीं होता। कवियों ने तो गुरु को 'गोविन्द' के सामने भी प्रथम-पूजनीय बताया है। बाद में जब अध्यापन को व्यवसाय बना दिया गया, तब इसकी प्रतिष्ठा में कमी आ गयी। इसके अलावा, भौतिकता के बढते महत्त्व के कारण भी अध्यापक को अपनी जगह छोडनी पडी। फिर भी इसमें सत्कीर्ति तथा सम्मान तो अभी भी है।' 'वर्ण व्यवस्था के साथ एक और ध्यान देने की बात है कि आज जिसे हम उच्च वर्ग कहते हैं, उसके लिए कठिन नियम निर्धारित थे; उन्हें संकल्पित मानक पर खरा उतरना होता था।' 'उन्हें विशेषाधिकार भी तो था !' 'परन्तु इसका अधिकारी होने केलिए वर्ण के अनुरूप क्षमता तथा तपस्या अनिवार्य थी। आचरणगत नीतियों का पालन करना था। शील के व्यवहारगत नियमों को अत्यन्त गंभीरता तथा पारदर्शिता से साधा जाता था। ब्राह्मण का उत्तरदायित्त्व उसकी योग्यता एवं तप के अनुरूप था, साथ ही उससे अपेक्षा की जाती थी कि वह स्वयं सत्पथ पर चलते हुए उत्तम विचारों तथा संदेशों से सदैव देश, समाज और शासक का मार्ग दर्शक बना रहेगा, उसके द्वारा पवित्रता के श्रेष्ठतम नियमों का पालन किया जायेगा। शुचिता का आदर्श प्रस्तुत करने के साथ ही वह निपुण वैज्ञानिक भी होगा। वह धर्मविद तो होगा ही, उसमें भविष्यवाणी की भी योग्यता होगी। वीर क्षत्रिय के उत्तरदायित्त्व का आधार मुख्यत: उसका बाहुबल था, उसकी संकल्प-शक्ति इतनी सघन होगी कि चाहे कितना भी पारिवारिक या भावनात्मक दबाव हो, वह देश-हित में अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करेगा। वह किसी मोह से ग्रस्त नहीं होगा; उसके लिए अपना कर्तव्य ही सर्वोपरि रहेगा। वैश्य पर देश के प्राकृतिक तथा मानवकृत ऐश्वर्य के संरक्षण-संवर्धन का उत्तरदायित्व था। समाज को स्वस्थ-सम्पन्न बनाये रखने वाले व्यवहर्ता से यह अपेक्षा थी कि वह समाज तथा साम्राज्य की सम्पत्ति का अभिरक्षक होकर भी उससे निर्लिप्त रहेगा और दानशीलता का चरम आदर्श प्रस्तुत करेगा। धर्मनिष्ठ श्रेष्ठी से ही यह अपेक्षा थी कि वह मानव, मानवेतर प्राणियों और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील रहते हुए देश तथा समाज को सुरुचिपूर्ण बनाये रखेगा। अब बात आती है सेवा प्रभारी की; उसका ज्ञानी-विज्ञानी या पराक्रमी योद्धा या वित्तपटु पर्यावरणविद होना आवश्यक नहीं था। योग्यता की ऊचाइयाँ अध्यापक, रक्षक तथा श्रेष्ठी केलिए अनिवार्य थीं; सेवा प्रभारी से मात्र विनम्रता की अपेक्षा की जाती थी। वह जीवन के अनेक दुरूह नियमों से भी मुक्त था। उसे योग्यता की कठिन परीक्षाओं से तो नहीं ही गुजरना था, उसकी कार्य-कुशलता भी स्वनिर्मित ही हुआ करती थी। परन्तु उसके अधिकार क्षेत्र में वह अवसर तो था ही कि अपने नियत कर्म के माध्यम से अपनी सुप्त क्षमताओं को जगा कर विशिष्टता विकसित कर ले और तदनुसार किसी उच्च दीर्घा में स्थान पा जाये। इसे 'तप' कहा जाता था। तप के द्वारा होने वाला आंतरिक विकास बाह्य प्रतिष्ठा को व्यक्तित्व के अनुकूल बनाता था। यह आदर्श व्यवस्था अंतर से बाह्य को जोडने वाली थी।' 'अब तो इसका भग्नावशेष भी दिखाई नहीं देता।' 'हाँ, कालान्तर में विकृतियाँ आ गयीं।' 'जब किसी ज्ञानी-गुणी ब्राह्मण का मूर्ख-लंपट बेटा ब्राह्मणत्व को अपनी बपौती मानने लगा, कोई कायर क्षत्रियसुत अपने पराक्रमी पिता के घोडे पर उचक कर बैठ गया, दानी वैश्य का लोभी बेटा पिता द्वारा राज्य के संरक्षित धन को हडप कर भी पिता के ही समान श्रेष्ठी बनने का दावा करने लगा, सेवा परायणता को हेय मान कर बिना योग्यता के ही सेवक-सुत ऊँची दीर्घा में बैठने की हठधर्मी पर उतर आया तब विकृतियाँ शुरू हुईं और होती चली गयीं। इस गिरावट में वह अवसर कहाँ रहा कि कोई वा्तुत: नीचे की दीर्घा से ऊपर आ सके? ऐसे में क्षमतावान 'वर्ण-पुरुष' को चिह्नित करना असंभव हो गया।' 'उस प्राचीन कालखण्ड में अधिकांशत: परिवार में ही शिक्षा ग्रहण करने की रीति थी। गुरुकुलों में जाने वालों की संख्या अल्प थी। पिता से शिक्षित होकर युवा पुत्र द्वारा पैतृक परम्परा को आगे बढाना स्वाभाविक था। ज्ञान अथवा कुशलता के हस्तांतरण पर वंशवाद का आक्षेप नहीं लगता था; बल्कि यह अपेक्षा की जाती थी कि पुत्र पिता को प्रतिष्ठा देकर नया कीर्तिमान स्थापित करेगा।' (जारी....) इसमें ऊँच-नीच की तो कोई बात नहीं उठी !' 'वर्गभेद को लेकर व्यक्तिगत और सामाजिक दृष्टिकोण भिन्न होता है। प्रतिष्ठा का मापदंड सामाजिक संदर्भ में तैयार होता है। आदि काल से ही अध्यापन अधिक सम्मानीय कार्य माना जाता रहा है। 'शिक्षा' समाज का नैतिक उत्तरदायित्व बन गया था। व्यक्ति चाहे किसी भी वर्ण या वर्ग का हो, उसे उसका शिक्षक ही सँवारता-तराशता था। भारत में शिक्षक को माता-पिता के समकक्ष सम्मान देने की परम्परा है। इसमें द्विपक्षीय उदात्तता है; शिक्षक भी अपने शिष्य को अपने से बडा पाकर ईर्ष्याग्रस्त नहीं होता। कवियों ने तो गुरु को 'गोविन्द' के सामने भी प्रथम-पूजनीय बताया है। बाद में जब अध्यापन को व्यवसाय बना दिया गया, तब इसकी प्रतिष्ठा में कमी आ गयी। इसके अलावा, भौतिकता के बढते महत्त्व के कारण भी अध्यापक को अपनी जगह छोडनी पडी। फिर भी इसमें सत्कीर्ति तथा सम्मान तो अभी भी है।' 'वर्ण व्यवस्था के साथ एक और ध्यान देने की बात है कि आज जिसे हम उच्च वर्ग कहते हैं, उसके लिए कठिन नियम निर्धारित थे; उन्हें संकल्पित मानक पर खरा उतरना होता था।' 'उन्हें विशेषाधिकार भी तो था !' 'परन्तु इसका अधिकारी होने केलिए वर्ण के अनुरूप क्षमता तथा तपस्या अनिवार्य थी। आचरणगत नीतियों का पालन करना था। शील के व्यवहारगत नियमों को अत्यन्त गंभीरता तथा पारदर्शिता से साधा जाता था। ब्राह्मण का उत्तरदायित्त्व उसकी योग्यता एवं तप के अनुरूप था, साथ ही उससे अपेक्षा की जाती थी कि वह स्वयं सत्पथ पर चलते हुए उत्तम विचारों तथा संदेशों से सदैव देश, समाज और शासक का मार्ग दर्शक बना रहेगा, उसके द्वारा पवित्रता के श्रेष्ठतम नियमों का पालन किया जायेगा। शुचिता का आदर्श प्रस्तुत करने के साथ ही वह निपुण वैज्ञानिक भी होगा। वह धर्मविद तो होगा ही, उसमें भविष्यवाणी की भी योग्यता होगी। वीर क्षत्रिय के उत्तरदायित्त्व का आधार मुख्यत: उसका बाहुबल था, उसकी संकल्प-शक्ति इतनी सघन होगी कि चाहे कितना भी पारिवारिक या भावनात्मक दबाव हो, वह देश-हित में अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करेगा। वह किसी मोह से ग्रस्त नहीं होगा; उसके लिए अपना कर्तव्य ही सर्वोपरि रहेगा। वैश्य पर देश के प्राकृतिक तथा मानवकृत ऐश्वर्य के संरक्षण-संवर्धन का उत्तरदायित्व था। समाज को स्वस्थ-सम्पन्न बनाये रखने वाले व्यवहर्ता से यह अपेक्षा थी कि वह समाज तथा साम्राज्य की सम्पत्ति का अभिरक्षक होकर भी उससे निर्लिप्त रहेगा और दानशीलता का चरम आदर्श प्रस्तुत करेगा। धर्मनिष्ठ श्रेष्ठी से ही यह अपेक्षा थी कि वह मानव, मानवेतर प्राणियों और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील रहते हुए देश तथा समाज को सुरुचिपूर्ण बनाये रखेगा। अब बात आती है सेवा प्रभारी की; उसका ज्ञानी-विज्ञानी या पराक्रमी योद्धा या वित्तपटु पर्यावरणविद होना आवश्यक नहीं था। योग्यता की ऊचाइयाँ अध्यापक, रक्षक तथा श्रेष्ठी केलिए अनिवार्य थीं; सेवा प्रभारी से मात्र विनम्रता की अपेक्षा की जाती थी। वह जीवन के अनेक दुरूह नियमों से भी मुक्त था। उसे योग्यता की कठिन परीक्षाओं से तो नहीं ही गुजरना था, उसकी कार्य-कुशलता भी स्वनिर्मित ही हुआ करती थी। परन्तु उसके अधिकार क्षेत्र में वह अवसर तो था ही कि अपने नियत कर्म के माध्यम से अपनी सुप्त क्षमताओं को जगा कर विशिष्टता विकसित कर ले और तदनुसार किसी उच्च दीर्घा में स्थान पा जाये। इसे 'तप' कहा जाता था। तप के द्वारा होने वाला आंतरिक विकास बाह्य प्रतिष्ठा को व्यक्तित्व के अनुकूल बनाता था। यह आदर्श व्यवस्था अंतर से बाह्य को जोडने वाली थी।' 'अब तो इसका भग्नावशेष भी दिखाई नहीं देता।' 'हाँ, कालान्तर में विकृतियाँ आ गयीं।' 'जब किसी ज्ञानी-गुणी ब्राह्मण का मूर्ख-लंपट बेटा ब्राह्मणत्व को अपनी बपौती मानने लगा, कोई कायर क्षत्रियसुत अपने पराक्रमी पिता के घोडे पर उचक कर बैठ गया, दानी वैश्य का लोभी बेटा पिता द्वारा राज्य के संरक्षित धन को हडप कर भी पिता के ही समान श्रेष्ठी बनने का दावा करने लगा, सेवा परायणता को हेय मान कर बिना योग्यता के ही सेवक-सुत ऊँची दीर्घा में बैठने की हठधर्मी पर उतर आया तब विकृतियाँ शुरू हुईं और होती चली गयीं। इस गिरावट में वह अवसर कहाँ रहा कि कोई वा्तुत: नीचे की दीर्घा से ऊपर आ सके? ऐसे में क्षमतावान 'वर्ण-पुरुष' को चिह्नित करना असंभव हो गया।' 'उस प्राचीन कालखण्ड में अधिकांशत: परिवार में ही शिक्षा ग्रहण करने की रीति थी। गुरुकुलों में जाने वालों की संख्या अल्प थी। पिता से शिक्षित होकर युवा पुत्र द्वारा पैतृक परम्परा को आगे बढाना स्वाभाविक था। ज्ञान अथवा कुशलता के हस्तांतरण पर वंशवाद का आक्षेप नहीं लगता था; बल्कि यह अपेक्षा की जाती थी कि पुत्र पिता को प्रतिष्ठा देकर नया कीर्तिमान स्थापित करेगा।' 'माता-पिता या परिवार जन से ज्ञान, शिल्प, कौशल आदि विरासत में पाना स्वाभाविक तथा शुभ है। पारिवारिक व्यवसाय को जीविका का साधन बनाना भी सहज स्वीकार्य है। आपत्ति का कारण है अयोग्य संतान द्वारा पैतृक प्रतिष्ठित थाती को नाहक भुनाना।' यह क्या 'वर्ण' से 'वर्ग' में अपवर्तन की कथा है?' 'नहीं, यह इतनी सरल बात नहीं है। जब वर्ण 'जन्म' के अधीन हो गया, तब उसके अपने नियम-कायदे बन गये। वर्ण में निहित आध्यात्मिक उन्नयन का उद्देश्यपूर्ण तत्त्व सतह पर विस्मृत-सा हो गया। 'सतह' इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि व्यक्ति की अंतरात्मा में उन्नयन की खंडित प्रक्रिया उसके अनजाने भी मंदगति से चलती रहती है। पूर्ण तथा द्रुत उन्नयन तभी होता है जब व्यक्ति इसके प्रति सजग और सहमत हो। वहाँ तो विपरीत स्थिति बन गयी; वर्ण की ऊर्ध्वगामी नमनीयता को स्थगित कर पारिवारिक रूढियों की गाँठे व्यक्ति के विकास के आडे आने लगीं। वर्ण की आंतरिक श्रेष्ठता और व्यक्ति के स्वभावगत गुणशील में संगति का अभाव परिलक्षित होने लगा।' 'एक वर्ण में अनेक जातियां बन गयीं।' 'अनेक नही, अनगिनत। बनती चली गयी।' 'कौन था इनका निर्माता?' 'यह किसी एक व्यक्ति या एक कालखण्ड की रचना नहीं है। इसे परिभाषित करने में भी मनमानी की गयी है। वर्ण के समान स्पष्ट श्रृंखला जाति में नहीं है। इसकी संरचना का ताना-बाना बेहद उलझा हुआ है। इसे जीववैज्ञानिक कसौटी पर खरा उतारने की कोशिश की जाती है, परन्तु उसमें भी पूर्ण शुद्धता की कमी है। हालाँकि विश्व के मानव-वैज्ञानिक मानते हैं कि भारत का जाति वर्गीकरण विश्व की सबसे प्राचीन समाज-व्यवस्था है। और, सबसे आश्चर्यजनक है उस पर कायम रहने का सफल सामाजिक प्रयास। आचरणगत धर्म, परिवार, परम्परा तथा परमात्मा के प्रति श्रद्धा रखने वाला भारतीय अपनी जाति से भी प्रेम करता है और उसके प्रति निष्ठावान रहने को अपना कर्तव्य मानता है।' 'ऐेसे में 'जाति-मुक्त' समाज की कल्पना कितनी फलदायी और साथर्क है?' 'फल भविष्य के गर्भ में है, परन्तु यह कल्पना निरर्थक नहीं है। इसकी सम्भूति सम्भव है?' 'कैसे?' 'शिशु माँ का दूध पीना बन्द नहीं करना चाहता, परन्तु समय पर उसे छोडना पडता है। इससे माँ के दूध की महत्ता में कोई कमी नहीं आती। वह प्रारंभिक पेय व्यक्ति की जीवन रक्षा और में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लेकिन उसे छोडने के बाद ही वह अन्य पौष्टिक पदार्थों को अपनाने में समर्थ हो पाता है।' 'तब तो 'जातिप्रथा' को दोष देना गलत है !' '

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