Sunday, May 8, 2022

ॐ सुधा सिन्हा -- पिछडापन व 'जातिप्रथा'' -२

'कोई भी परम्परा या प्रथा निष्क्रिय या विकारग्रस्त हो जा सकती है; और, जातिप्रथा का तो प्रारंभ ही विकृति के माध्यम से हुआ है।' 'वर्ण व्यवस्था से निकली हुई जातिप्रथा विकृति क्यों मानी जाये? क्या यह एक सामाजिक माँग की तरह नहीं आयी होगी? क्या इसे वर्ण व्यवस्था का पूरक नहीं माना जा सकता?' 'वर्ण व्यवस्था की विशेषता है ऊर्ध्वगामिता; जब तक यह गति बनी रही तब तक व्यक्ति तथा समाज पर सकारात्मक प्रभाव पडता रहा। परन्तु जब वर्ण को स्वार्थसिद्धि का यंत्र बनाया गया, तब तो मूल प्रयोजन ही गौण हो गया। वह था मानव प्रकृति की दुर्बलता का दुष्परिणाम। आंतरिक प्रगति की निरन्तरता से बाह्य भंगुर सफलता को अधिक महत्त्व मिल गया।' 'वर्ण व्यवस्था को व्यक्तिपरक माना जा सकता है, जबकि जातिप्रथा समाजपरक है। वर्ण व्यक्ति की क्षमता, प्रवृत्ति और सम्भावना को लक्षित करता है, परन्तु 'जाति' व्यक्ति 'प्रथा' के अनुसार चलाती है।' 'हाँ, जाति के कारण ऊँच-नीच का भेद भी रूढ हो कर समाज में निराधार विद्वेष भर गया।' 'भारत के विद्वेषी मुसलमान आक्रमणकारी और ईसाई उपनिवेशवादी ने इस बनावटी सामाजिक विषमता को हवा देकर धर्मांतरण के अपने षडयंत्र का साधन बनाया। जाति की तथाकथित निम्न दीर्घा के हिन्दू को बडप्पन का मिथ्या प्रलोभन दिया। अधिकांशत: भारतीय मुसलमान और ईसाई उसी कोटि के धर्मच्युत हिन्दू हैं।' 'भारत के धर्मच्युत हिन्दू ही पादरी और मौलवी बन कर छल-बल से हिन्दुओं का धर्मांतरण कराते हैं और अपनी संख्या बढा कर भारतीय संस्कृति को चुनौती देते हैं। ऐसे भग्न लोगों में भारत के प्रति विद्वेष आम बात है; वे उन मौकों की तलाश में रहते हैं जब हिन्दुत्व तथा भारत की निन्दा कर सकें।' 'क्या यह कोई मनोवैज्ञानिक विकार है?' 'हो सकता है।' 'मुसलमान या ईसाई बनाये गये वंचित-पीडित हिन्दुओं को अपने नये समूह में भी सम्मान मिला नहीं; मिला होता तो आज वे आरक्षण-हल्लाबाजों के गैंग में शामिल नहीं होते। 'ललकिसुना' से लतीफ या 'रजवा' से रॅाबर्ट कहे जाने पर भी क्षुद्रता ने उनका पीछा नहीं छोडा।' 'ऐसा प्रगाढ रसायन है जातीयता का !' 'ऐसा इसलिए कि इस धर्मांतरण में कोई ऊर्ध्वगामी लक्ष्य नहीं है। यह अपने सदस्यों को उसी तरह परिधि में रखना चाहता है जैसे गाय-भैंस को गिन कर बाडे में रखा जाता है।' 'तब तो इसे उनके साथ हुआ हादसा ही मानना चाहिए। एक तो धर्म परिवर्तन के कारण आंतरिक विकास की सम्भावना बाधित हुई, उधर भी दोयम दर्जा ही मिला और आरक्षण का दावा भी गया।' 'नहीं, उनके लिए विशेष छात्रवृत्तियां आरक्षित हैं।' 'क्यों ?' 'क्योंकि धर्मच्युत होने के बाद भी वे जाति की ऊँची दीर्घा के अधिकारी नहीं हुए।' 'मानना ही पडेगा कि जातिप्रथा का महाभ्रष्ट पडाव है आरक्षण।' 'हाँ, भारत तथा हिन्दू समाज को जातिप्रथा से जितनी क्षति हुई है, उससे कहीं अधिक हानि उठानी पड रही है संवैधानिक 'आरक्षण' से। 'हाँ, हानि तो होती ही जा रही है।' 'देश में योग्यता का निरादर इस आरक्षण का सबसे बडा अभिशाप बन गया है। होना यह चाहिए था कि पिछली पंक्ति के लोगों को मानक तक पहुँचाने की योग्यता पाने केलिए उन्हें शिक्षित-प्रशिक्षित किया जाता। इसकी सकारात्मक योजना बनांयी जाती। परन्तु उसके विपरीत जाकर, 'योग्य' को ही पीछे धकेल दिया गया। 'अयोग्य' को चुनने केलिए 'योग्य' की छटनी कर दी गयी।' 'इसकी कल्पना नहीं की गयी होगी।' 'यह कल्पना नहीं समझदारी की बात (जारी...) 'यह कल्पना नहीं समझदारी की बात थी। इस गलती का बहुत बडा खामियाजा 'ब्रेन-ड्रेन' के रूप में देश को भुगतना पडा।' 'हालाँकि प्रकारान्तर से इसका एक लाभ भी हुआ; सारे संसार में कर्म-समर्पित सुयोग्य भारतियों की उपस्थिति दर्ज हो गयी। इस प्रच्छन्न उत्कर्ष को क्षतिपूर्ति माना जा सकता है। आरक्षण की मार से पीडित ‍जिन प्रतिभा-सम्पन्न युवाओं को अपने देश में पनपने का मौका नहीं मिला, वे अन्यत्र जाकर अपनी कुशलता सिद्ध करने लगे।' 'सारी दुनिया विलक्षण भारतीय निपुणता का लोहा मानने लगी है।' 'भारत के लोगों में संकटों से जूझने की अद्भुत क्षमता है; कहा जाता है कि तुम अगर मुझ पर पत्थर फेंकोगे, तो उसी से बनती चली जायेंगी मुझे ऊपर तक पहुँचाने की सीढियां।..आरक्षण के कारण जब देश की प्रतिभा आहत हुई तब यही हुआ।' 'हाँ, दिमागदार उत्साही युवा वर्ग ने विदेशों का रुख किया। उनकी मानसिक क्षमता, लगन और कार्यनिष्ठा से स्वदेश वंचित रह गया; दूसरे देश लाभान्वित हुए। वे जहाँ कहीं गये, अपनी छाप छोडी। और यह कोई दो-चार वर्षों की बात नहीं थी; आधी शताब्दी से भी अधिक समय तक यही सिलसिला चलता रहा है।' 'इसका कारण केवल आरक्षण नहीं है; मुसलमानो और ब्रितानियों के कारण छिन्न-भिन्न हुए देश में अवसर की भी कमी हो गयी थी।' 'कमी थी, परन्तु जो अवसर उपलब्ध थे उनपर भी आरक्षण का डाका पड गया। देश अपना ऊर्जावान मानव संसाधन खोता चला गया। कार्य क्षेत्र मूर्खों के गढ बन गये। सरकारी कार्यालयों का वातावरण दोयम दर्जे का हो गया। तरह-तरह की हास्यास्पद बातें सामने आने लगीं।' 'देश में 'सरकारी' और 'गैर सरकारी' दो तरह के संस्थान थे। 'गैर सरकारी' पर तो आरक्षण की पाबंदी नहीं थी !' 'स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रारंभिक दिनों में 'गैर सरकारी' संस्थायें कम थीं। उनके कायदे पारदर्शी नहीं थे। सरकारी सेवाओं के नियम सुनिश्चित थे; इसमें प्रवेश पाना कठिन था, पर बने रहने की आश्वस्ति थी। हालाँकि इस आश्वस्ति ने सरकारी सेवकों को मनमौजी और ढीला-ढाला बना दिया था।' 'सरकारी संस्थाओं के ढीलेपन के दूसरे कारण भी हैं। सबसे पहला कारण है अधिकांश राजनेताओं का घटिया व्यवहार; गया-बीता विधायक या सांसद भी उत्तम-से-उत्तम सरकारी पदाधिकारी को अपना गुलाम समझता है। विशिष्ट योग्यता और कार्य क्षमता सम्पन्न सरकारी सेवक यदि राजनेताओं की खुशामद करने की कला नहीं जानता हो, तब उपेक्षा और अपमानजनक हानियों का शिकार बन जाता है। अपने क्षेत्रों में सस्ती लोकप्रियता पाने केलिए राजनेता नियमविरुद्ध काम कराने में लगा रहता है। ऐसे काम पदाधिकारियों पर दबाव डाल कर कराये जाते हैं। इससे भी खतरनाक स्थिति तब होती है जब सरकारी सेवक भ्रष्टाचार का यंत्र बन जाता है; भ्रष्ट राजनेता और बेईमान अफसर की साँठ-गाँठ हो जाती है। इससे सरकारी सेवक की एक नकारात्मक छवि बन गयी है। इसके अलावा राजनेताओं द्वारा अपनाये गये जातिवादी तौर-तरीके से भी सरकारी सेवकों का महकमा प्रदूषित हुआ है। और, इस सब के ऊपर आरक्षण के बल पर हुई अयोग्य भर्तियों ने तो कोढ में खाज की तरह सरकारी सेवा कैडर को मलिन और कुत्सित बना कर रख दिया।' 'गैर सरकारी संस्थानों में भी आरक्षण हो, इसकी माँग की जा रही है। हालाँकि इसका भारी विरोध भी हो रहा है।' 'गैर सरकारी संस्थानों की कार्य पद्धति सरकारी कार्यालयों से भिन्न है। वहाँ मुख्य फोकस 'उत्पाद' और 'लाभ' पर होता है। उनका व्यापार ऐसे लोगों से नहीं चल सकता जो काम करने नहीं, बल्कि दिन काटने आये हों। 'आरक्षण' की बैसाखी पर चलने वाले व्यक्ति का विशेषाधिकार होता है घटियापन। वह मान कर चलता है कि किसी भी गलती केलिए उसे नहीं टोका जा सकता। उसे सुधरने केलिए कहने पर भी हंगामा मच सकता है। इसलिए जो संस्थायें अपने दम पर चलती हैं, वे 'आरक्षण' की सुविधा पाने वाली 'महान हस्तियों' को कर्मचारी या पदाधिकारी बना कर संस्थान का भट्ठा बैठाने का खतरा मोल नहीं ले सकतीं।' 'सरकारी योजनाओं की सफलता केलिए भी तो सुयोग्य पदाधिकारियों की आवश्यकता है। सरकारी कार्यालयों को काने बैलों का कांजी हाउस बनाने से तो सरकार की ही छवि बिगडी है और देश पिछडता चला जा रहा है।' जानी हुई बात है कि राजकामियों का ध्यान देश की प्रगति की ओर नहीं होता; वे अपनी सारी शक्ति सत्ता हासिल करने और उसे बनाये रखने में ही लगा देते हैं। इसके लिए वे शॅार्टकट निकालने के बेहद ऊल-जुलूल उपाय ढूँढते रहते हैं। जो उनको एकमुश्त वोट दिला कर जिता दे, उसे अपने पक्ष में बनाये रखने में ही वे अपने कार्यकाल का अधिकांश भाग बरबाद कर देते है। अपने क्षेत्र के लोगों की जरूरतें पूरी करना उनका पहला कर्तव्य है; इस बात की वे जानबूझ कर अनदेखी करते हैं, अपने वोटजिताऊ समूह के तुष्टिकरण का नाटक करते हैं। हालाँकि यह अदूरदर्शिता उनके पतन का कारण बन जाती है।' 'आरक्षण के नाम पर चल रही योजनाओं से जिस लाभ की कल्पना की गयी थी, वह भी तो सिद्ध नहीं हो पाया !' 'जिस उद्देश्य से आरक्षण लागू किया गया था उसे पूरा करने केलिए आजादी के बाद बारह-पन्द्रह वर्षों का समय ही पर्याप्त था।' 'समय तो व्यर्थ गवाँया ही, आरक्षण को निरर्थक से घातक बना दिया गया।' 'समाज के जिस जन समूह को इससे सीधी हानि हो रही थी, उसने भी तो जम कर इसका विरोध नहीं किया?' 'इसके कई कारण हैं। एक तो यह कि 'विरोध' एक 'full time job' है। यह एक ऐसा व्यवसाय है जिसके पीछे अपनी जीविका, अपना परिवार और व्यक्तिगत सुख-सुविधा को भी दाँव पर लगाना पडता है। अगर हिट कर गया, तब तीर न तो तुक्का। इससे बचने केलिए लोगों ने दूसरे विकल्प ढूँढ लिये। कहीं-कहीं विरोध को 'out source' कर दिया गया। वह भी सफल नहीं हुआ। अधिकतर शासन-प्रशासन को कोस कर लोग चुप बैठ गये। दूसरा बडा कारण है 'धैर्य' की अतिशयता। इस दैवी गुण की कृपा भारतवर्ष पर कुछ अधिक ही है। यहाँ लोग परिस्थितियों को अपने-आप ढलने का मौका देते-देते इस आशा में स्वर्ग सिधार जाते हैं कि अगले जन्म में देखा जायेगा। अगला जन्म अवश्य सुखमय होता होगा क्योंकि विधि के विधान से लोगों को अपना पूर्व जन्म विस्मृत हो जाता है और वे किसी माता-पिता की गोद में बैठ कर धैर्यवान होने की शिक्षा लेते-लेते जीवन के सारे दुख झेलने को तैयार हो जाते हैं। इस प्रक्रिया में धैर्य कब 'आलस्य' में बदल जाता है, इसका पता ही नहीं चलता। यह आलस्य मनुष्य को भीतर से लेकर बाहर तक बहुत कुरूप और स्थूल बना देता है। आरक्षण की समस्या भी जनगण के आलस्य का लाभ उठा कर फूलफल रही है। इसे हटाने की राजनैतिक इच्छा का अभाव, माफीआ का प्रभाव और जनगण का आलसी स्वभाव इसे जीवन दान दे‍ता जा रहा है।' 'इसे सही रास्ते पर लाने केलिए कोई उपाय तो होगा!' 'इससे मुक्त होना ही एकमात्र उपाय है। कोई शॅार्टकट नहीं है।' 'हटाने की बात करने पर हंगामा होगा !' 'अनन्तकाल तक आरक्षण लागू रहने की आशंका से हंगामा होने लगा है।' 'कोई आरक्षण नहीं लेना चाहे, तब?' 'तब भी यह बना रह सकता है। वह दिन दूर नहीं जब आरक्षण 'expired date' चीज बन जायेगा।' 'रद्दी सामानों के भी ग्राहक होते हैं। आरक्षण भी 'secondhand item ' की तरह चलता रहेगा।' 'हाँ, आरक्षण माफीआ अपनी दूकान बन्द नहीं करेगा। जब आरक्षण को लोग अपमानजनक मानने लगेंगे, तब वह जानवरों को आरक्षण दिलवाने केलिए हंगामा करेगा। सरकार को अस्थिर करने के इस उपाय को वह इतनी आसानी से हाथ से निकलने नहीं देगा।' 'कानून बनाना होगा।' 'हाँ, वही उपाय बचा है।' 'लेकिन अपने देश में कानून बनाना भी कोई हँसी-खेल नहीं है; हम देख रहे हैं कि काम बिगड जाने के बाद प्रस्तावित कानून लागू होता है। समय सीमा का खयाल नहीं रखने के कारण देश में समस्याओं का अम्बार लगता जा रहा है। कार्यालयों से लेकर न्यायालयों की यही स्थिति है।' 'आरक्षण के विरुद्ध कानून बनने की प्रक्रिया शुरू होते ही उसे नहीं बनने देने केलिए मुकदमे दायर हो जायेंगे। कुतर्को की फेहरिश्त के साथ कोई जेठमलानी, कोई कपिल सिब्ब्ल खडे हो जायेंगे। जनता के बीच गलत संदेश देने वाले समाचारों और विचाअखबार के विशेष अंक निकलने लगेंगे।' 'इन अपशक्तियों को नाकाम करने का उपाय ?' 'कठिन है। पर इन्हें नाकाम करना ही होगा।' 'कैसे?' 'आज आरक्षण जिस झूठ के झूले पर पेंग मार रहा है, उसकी रस्सी काट देनी होगी।' 'आसान नहीं है। इस झूठ पर पलने वाले उस हर बात का विरोध करते हैं जिसमें इसे हटाये जाने के संकेत होते हैं।' 'यह एक सीमा तक ही चल सकता है; आरक्षण का ज्वार-भाटा सिर के ऊपर से गुजर रहा है।' 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अगडों का दल माना जाता है। इसीलिए बीजेपी पर आरक्षण विरोधी होने का आरोप मढा जा रहा है। हालाँकि यह आरोप बनावटी है; बीजेपी ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया है जिससे आरक्षण में कोई कटौती हो।' 'अंतत: यह बात बीजेपी के खिलाफ ही जायेगी। भले ही इसने आरक्षण को अपना बोट बैंक बनाने की साजिश नहीं की हो, परन्तु अयोग्यों ने तो इसे भी डरा ही रखा है।' 'जब किसी देश में अयोग्यों की चलती-बनती है तब उसका पतन होने लगता है।' 'क्या भारत का पतन हो रहा है?' 'नहीं, पतन तो नहीं है, परन्तु जितनी प्रगति होनी चाहिए, नहीं हो रही है। इस बात का भी खतरा है कि सही दिशा में प्रगति नहीं होने पर दिशान्तर होने लगेगा जो देश को भारी नुकसान पहुँचा सकता है।' 'हम फिर उस मूल प्रश्न पर आते हैं कि यदि संविधान के आकलन के अनुसार दलित-वंचित ने अपने को उत्तिष्ठ नहीं किया, तब क्या वे समान अधिकार का लाभ उठा पायेंगे?' 'अधिकार पाने केलिए योग्य होना आवश्यक है।' 'फिर वही बात सामने आती है कि सामाजिक प्रथायें दलितों-वंचितों को योग्य बनने में बाधक बनती हैं।' 'यह बाधा तो महिलाओं के प्रसंग में भी है।' 'हाँ। दलित-वंचित या महिला, सबके लिए समेकित रूप से अवसर के द्वार खुले होने चाहिए। उनके सामने योग्यता का मानक हो जिसके अनुसार अपने को गढने की स्वतंत्रता उन्हें मिले। वे किसी योग्य को रौंदे बिना आगे बढें।' 'अयोग्यता को विशेषाधिकार मानना आरक्षण की सबसे बडी खोट है। इससे अयोग्य बनने की होड लग गयी है।' 'सामान्य वर्ग के अयोग्यों को दलित-वंचित होने का फर्जी प्रमाण पत्र दिलवाने वाले माफीआ दलाल सरकारी कार्यालयों में भ्रष्टाचारी धंधा चला रहे हैं।' 'योग्यता परिश्रम से विकसित होती है; दलित-वंचित होने का फर्जी प्रमाणपत्र तो घर बैठे मिल जाता है।' 'यह तो मानना ही होगा कि रातों-रात योग्य नहीं बना जा सकता।' 'दलित-वंचित बना जा सकता है?' 'फर्जी दलित-वंचित बनाने वाला माफीआ भगवान भरोसे नहीं बैठता। उसका विश्वास किसी जप-तप पर भी नहीं है जिससे अगले जन्म में दलित-वंचित कुल में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त हो। इसके अलावा खुदरा से अधिक लाभ थोक व्यापार में होता है, इसलिए समूहों को दलित-वंचित बनाने की मुहिम चल निकली है; दलित-वंचित बनना अब व्यक्तिगत बात नहीं रही। राजकामियों का यह हथकंडा आरक्षण नामक पातक की पूर्णाहुति है।' 'आरक्षण इतनी आसानी से जाने वाला नहीं है।' 'किसने कहा कि यह आसनी से जायेगा?' 'पूर्णाहुति तो समापन पर ही दी जाती है।' 'अपतत्वों से मुक्ति पाने केलिए भी यज्ञ आयोजित होते हैं। नकारात्मकताओं से निकलने में समय लगता है। अथक प्रयास की आवश्यकता होती है।' 'वही प्रयास जो देश से पोलियो या यक्ष्मा को निर्मूल करने में लगा है, वैसा ही संकल्प लेना होगा।' 'आरक्षण को लेकर मनोभाव बदलने की जरूरत है।' आरक्षण को लेकर मनोभाव बदलने की जरूरत है।' 'यह 'हक' या 'क्षतिपूर्ति' नहीं बल्कि 'भीख' है; यह बात बतानी होगी।' 'भीख माँगना अपमानजनक है, फिर भी भिखमंगे हैं; अकर्मण्य को सम्मान नहीं, मुफ्त का माल चाहिए।' 'सारे दलित-वंचित अकर्मण्य नहीं हैं।' 'सबसे ज्वलंत उदाहरण हैं स्वनामधन्य भीमराव अंवेदकर। उनकी स्वयंसिद्ध बहुमुखी योग्यता किसी आरक्षण पर निर्भर नहीं थी !' 'सब में वैसी प्रतिभा नहीं होती है।' 'हाँ। तीन तत्त्वों के समाहार से व्यक्ति प्रतिभावान बनता है: प्रेरणा ग्रहण करने की जन्मजात क्षमता, सोद्देश्य परिश्रम तथा लक्ष्य तक पहुँचने का संकल्प। इसके लिए न तो तथाकथित उच्चवर्ग का होना जरूरी है, न आरक्षण की आवश्यकता है।' 'जो जन्मजात क्षमता सम्पन्न नहीं है उसे तो आरक्षण चाहिए?' 'ऐसे लोग तो गैरदलितों में भी होंगे; तो उन्हें भी आरक्षण देने का प्रावधान हो।' 'तब तो IQ जाँच के आधार पर सामान्य से नीचे के स्तर वालों को आरक्षण मिले।' 'क्या देश की नियति इस बात को सहन करेगी कि जन्मजात मूढ और स्वभाव से कामचोर अनिश्चयी को तमाम उच्च पदों पर बैठा दिया जाये ?' 'हाँ, निष्कर्ष में यही सिद्ध-सत्य है कि देश का विकास गंभीर युक्तियों से होगा; आरक्षण के चोंचलों से नहीं।' * आरक्षण भारतीय स्वभाव के प्रतिकूल है। भौतिक-आधिभौतिक रूप से आरक्षण अहितकर है। यह वोट की राजनीति का बेशर्म आइटम बन गया है। अख्यात राजकामी इसे जपकर कुख्यात बने हैं। क्रीमी-लेयर का मायाजाल आरक्षण की देन है। इसके पक्षधर खोटी मंशा वाले राज-पिशाच हैं। इसके विरोधी दलित-विद्वेषी मान लिये जाते है। आरक्षण से दलित-वंचित उत्तिष्ठ नहीं होते। यह दलित-वंचित बने रहने की छद्म गारंटी देता है। इसके इर्द-गिर्द भ्रष्टाचार का रोगाणु सक्रिय है। व्यक्ति में विकास की नैसर्गिक क्षमता होती है। आरक्षण विकास की उस गति को कुंठित करता है। आरक्षण स्वाभिमान को चोट पहुँचाता है। आरक्षण से समाजिक भेद नहीं मिट पाया। आरक्षण माफीआ चिंतित दीख रहा है; क्योंकि सर्वहित में आरक्षण निरस्त होना ही है। इति आरक्षण प्रसंग

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